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अन्ना॑त् परि॒स्रुतो॒ रसं॒ ब्रह्म॑णा॒ व्य᳖पिबत् क्ष॒त्रं पयः॒ सोमं॑ प्र॒जाप॑तिः। ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पानंꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृतं॒ मधु॑ ॥७५ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अन्ना॑त्। प॒रि॒स्रुत॒ इति॑ परि॒ऽस्रुतः॑। रस॑म्। ब्रह्म॑णा। वि। अ॒पि॒ब॒त्। क्ष॒त्रम्। पयः॑। सोम॑म्। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७५ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:75


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कैसे राज्य की उन्नति करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (ब्रह्मणा) चारों वेद पढ़े हुए विद्वान् के साथ (प्रजापतिः) प्रजा का रक्षक सभाध्यक्ष राजा (परिस्रुतः) सब ओर से पके हुए (अन्नात्) जौ आदि अन्न से निकले (पयः) दुग्ध के तुल्य (सोमम्) ऐश्वर्ययुक्त (रसम्) साररूप रस और (क्षत्रम्) क्षत्रियकुल को (व्यपिबत्) ग्रहण करे, सो (ऋतेन) विद्या तथा विनय से युक्त न्याय से (अन्धसः) अन्धकाररूप अन्याय के निवारक (शुक्रम्) पराक्रम करनेहारे (विपानम्) विविध रक्षण के हेतु (सत्यम्) सत्य व्यवहारों में उत्तम (इन्द्रियम्) इन्द्र नामक परमात्मा ने दिये हुए (इन्द्रस्य) समग्र ऐश्वर्य के देनेहारे राज्य की प्राप्ति करानेहारे (इदम्) इस प्रत्यक्ष (पयः) पीने के योग्य (अमृतम्) अमृत के तुल्य सुखदायक रस और (मधु) मधुरादि गुणयुक्त (इन्द्रियम्) राजादि पुरुषों ने सेवे हुए न्यायाचरण को प्राप्त होवे, यह सदा सुखी होवे ॥७५ ॥
भावार्थभाषाः - जो विद्वानों की अनुमति से राज्य को बढ़ाने की इच्छा करते हैं, वे अन्याय की निवृत्ति करने और राज्य को बढ़ाने में समर्थ होते हैं ॥७५ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

कथं राज्यमुन्नेयमित्याह ॥

अन्वय:

(अन्नात्) यवादेः (परिस्रुतः) सर्वतः स्रुतः पक्वात् (रसम्) सारभूतम् (ब्रह्मणा) अधीतचतुर्वेदेन (वि) (अपिबत्) गृह्णीयात् (क्षत्रम्) क्षत्रियकुलम् (पयः) दुग्धमिव (सोमम्) ऐश्वर्ययुक्तम् (प्रजापतिः) प्रजापालकः सभेशो राजा (ऋतेन) विद्याविनययुक्तेन न्यायेन (सत्यम्) सत्सु व्यवहारेषु साधु (इन्द्रियम्) इन्द्रेणेश्वरेण दत्तम् (विपानम्) विविधं पानं रक्षणं यस्मात् तत् (शुक्रम्) वीर्यकरम् (अन्धसः) अन्धकाररूपस्याऽन्यायस्य निवर्तकम् (इन्द्रस्य) समग्रैश्वर्यप्रदस्य राज्यस्य (इन्द्रियम्) इन्द्रै राजभिर्जुष्टं न्यायाऽऽचरणम् (इदम्) (पयः) पातुमर्हम् (अमृतम्) अमृतमिव सुखप्रदम् (मधु) माधुर्यगुणोपेतम् ॥७५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - यो ब्रह्मणा सह प्रजापतिः परिस्रुतोऽन्नान्निःसृतं पयः सोमं रसं क्षत्रं च व्यपिबत्, स ऋतेनाऽन्धसो निवर्तकं शुक्रं विपानं सत्यमिन्द्रियमिन्द्रस्य प्रापकमिदं पयोऽमृतं मध्विन्द्रियं च प्राप्नुयात्, स सदा सुखी भवेत् ॥७५ ॥
भावार्थभाषाः - ये विद्वदनुमत्या राज्यं वर्द्धितुमिच्छन्ति, तेऽन्यायं निवर्तयितुं राज्यं वर्द्धयितुं च शक्नुवन्ति ॥७५ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे (राजे) विद्वानांच्या मान्यतेने राज्याची वृद्धी करू इच्छितात. ते अन्याय नाहीसा करून राज्य वाढविण्यास समर्थ असतात.